कितने मासूम परिंदों का ठिकाना होगा
क्या शजर काटने वालों ने ये सोचा होगा
आलमे-यास में जब याद वो आया होगा
अश्क बन - बन के लहू आँख से टपका होगा
ज़िन्दगी तुझसे डरा है न डरेगा वो कभी
मौत कि गोद में दिन - रात जो खेला होगा
मुश्किलें ज़ीस्त कि आसान लगेंगी उसको
जिसको हर हाल में जीने का सलीक़ा होगा
उसने अश्कों के दिए कैसे जला रक्खे हैं
रात के घोर अँधेरे में वो तनहा होगा
बारहा जिसको पुकारा है धड़कते दिल ने
वो मेरी याद में इक बार तो तडपा होगा
किस क़दर डरता है मज़लूम कि आहों से फ़लक
ज़िन्दगी तूने तो हर दौर में देखा होगा
न कोई दोस्त ; न एहबाब ; न रिश्ते - नाते
सिर्फ़ दस्तूर है जो हमको निभाना होगा
फैल जाएँ न ज़माने पे अँधेरे यारो
अब चराग़ों को हवाओं से बचाना होगा
याद आएगा तुम्हें गाँव के पेड़ों का हुजूम
जिस्म जब शहर कि गर्मी से झुलसता होगा
जब भी अंगड़ाई मेरी याद ने ली होगी ''ज़हीन''
उसने आईना बड़े गौर से देखा होगा
''ज़हीन'' बीकानेरी
Monday, April 12, 2010
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