Friday, April 16, 2010

''ग़ज़ल'' धूप में जब भी बाग़ जलता है

धूप में जब भी बाग़ जलता है


साथ दिल के दिमाग़ जलता है



एक ज़ालिम के ज़ुल्म से अब तक

है वतन पर जो दाग़ जलता है



क़ाफ़िले मंजिलों को पा न सके

मुद्द्तों से सुराग़ जलता है



मेरे दामन पे तेरी उल्फ़त का

जो लगा है वो दाग़ जलता है



दिल में नाकाम हसरतों का ''ज़हीन''

धीमे - धीमे चराग़ जलता है



''ज़हीन'' बीकानेरी

6 comments:

  1. आदाब जहीन भाईजान । बहुत सुन्‍दर अश'आर भाई जहीन साहब । मैं आपके ब्‍लॉग पर पहली बार आया और बेहद अच्‍छा लगा आपकी उम्‍दा गजलें पढकर । आपको हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई साथ ही आभार

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  2. वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति!

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  3. क़ाफ़िले मंजिलों को पा न सके
    मुद्द्तों से सुराग़ जलता है...

    शेर खुद कह रहा है कि वो 'ज़हीन' के नायाब क़लम
    का ही शाहकार है ...वाह !
    आज पहली बार किसी तरह जनाब के ब्लॉग पे
    पहुंचा हूँ ... लुत्फ़ आ गया
    अब बराबर आना-जाना लगा रहेगा

    एक अच्छी ग़ज़ल पर ढेरों मुबारकबाद .
    "मुफ़लिस"

    dkmuflis.blogspot.com
    dkmuflis@gmail.com
    098722-11411.

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  4. SHUKRIYA NARENDRA BHAI MUAF KARNA MAIN AAPSE WAQIF NAHIN HUN AAP APNE BARE MAIN AGAR BATAYENGE TO MUJHE KHUSHI HOGI

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  5. SHUKRIYA NILESH SAHIB AAPNE MUJHE SAMAAT KIYA AAP APNA TARUFF PESH KARENGE TO EK DUSARE KO JAAN NE MAIN AASAANI RAHEGI

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  6. SHUKRIYA MUFLIS BHAI AAPNE BLOG PE APNI GEHRI NAZAR DALI

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