उमीद मंजिले-मक़सूद कि बहुत कम है
तेरे मिज़ाज में आवारगी बहुत कम है
नए ज़माने के इंसान क्या हुआ तुझको
तेरे सुलूक में क्यूँ सादगी बहुत कम है
वो जिनसे ज़ीस्त कि हर एक राह रोशन थी
उन्ही चरागों में अब रोशनी बहुत कम है
मैं अपनी उम्र कि तुझको दुआएं दूँ कैसे
मुझे ख़बर है मेरी ज़िन्दगी बहुत कम है
जो सायादार कभी मोसमे-बहार में था
उसी दरख़्त का साया अभी बहुत कम है
तमाम रिश्तों कि बुनियाद है फ़क़त एहसास
मगर दिलों में तो एहसास ही बहुत कम है
बदलते दौर कि ज़द में है गुलसितां का निज़ाम
''ज़हीन'' फूलों में अब ताज़गी बहुत कम है
''ज़हीन'' बीकानेरी
Thursday, April 8, 2010
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behtreen gazal....ek ek shabd mai gahrai ki baat kah di aapne..
ReplyDeleteबहुत खूब।
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